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तीर्थयात्रा शुरू करने से पहले कार्यों और नियमों के बारे में जानें
यात्रा पर जाने से पहले श्रद्धालुओं को 41 दिनों का व्रत (ब्रह्मचर्य और शाकाहारी भोजन) रखना होता है। यात्रा से एक दिन पहले, श्रद्धालु केट्टुनिरा नाम के एक अनुष्ठान में भाग लेते हैं जिसमें वे इरुमुडिकेट्टु बनाते हैं। इरुमुडिकेट्टु दो भागों में बंटी हुई एक छोटी थैली है। सामने वाली थैली मुनमुडी कहलाती है, और पीछे वाली थैली को पिनमुडी कहा जाता है। मुनमुडी में मंदिर के लिए प्रसाद और पूजा सामग्री रखी जाती है और पिनमुडी में श्रद्धालु अपना निजी सामान ले जाते हैं।
उच्चतम आध्यात्मिक अनुभव का स्थल शबरिमला ऐसा मंदिर नहीं है जहां आप हर दिन या किसी भी समय जा सकते हैं। मंदिर और तीर्थयात्रा से जुड़े ऐसे कई अनुष्ठान हैं जिनका यात्रा पर निकलने से पहले श्रद्धालुओं को सम्मान करना पड़ता है और उनका पालन करना पड़ता है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:
मंडला व्रत मालयिडल अनुष्ठान से शुरू होता है। इसका अर्थ गले में माला (मोतियों का चेन) पहनने से है, जो तपस्या करने की इच्छा का प्रतीक है। इस चेन में अक्सर भगवान अय्यप्पा की फ़ोटो वाला एक लॉकेट होता है। मालयिडल अनुष्ठान के साथ, आधिकारिक रूप से संयम का समय शुरू होता है। माला प्राय: या तो मंदिर के पुजारी या गुरुस्वामी (जिसने शबरिमला की 18 तीर्थयात्राएं पूरी कर ली हों) से प्राप्त की जाती है। तीर्थयात्रा के समापन के बाद ही माला उतारी जाती है।
मंडला व्रत तीर्थयात्रा पर जाने से पहले की जाने वाली तपस्या है जो 41 दिनों तक चलती है। इस दौरान, श्रद्धालुओं को सांसारिक सुखों से दूर रहना, सादा जीवन जीना, अनुशासन में रहना और अच्छी कार्य-प्रथाओं का पालन करना होता है जिससे उनका जीवन बेहतर बन सके। पूरे दिन ईश्वर की प्रार्थना की जाती है और श्रद्धालु काले कपड़े पहनते हैं, जो भौतिक चीजों से अनासक्ति का प्रतीक है। इस दौरान बाल कटवाने, दाढ़ी बनाने और नाखून काटने की मनाही होती है।
इरुमुडिकेट्टु की तैयारी शबरिमला की तीर्थयात्रा से जुड़े बड़े अनुष्ठानों में से एक है। इरुमुडिकेट्टु दो भागों वाला एक छोटी थैली होती है जिसमें एक में भगवान का प्रसाद होता है और दूसरी थैली में श्रद्धालु अपना निजी सामान रखते हैं। इरुमुडिकेट्टु तैयार करने के अनुष्ठान को केट्टुनिरक्कल कहा जाता है। यह गुरु स्वामी के निर्देश में किया जाता है। इस अनुष्ठान में, नारियल से पानी निकालने के बाद उसमें घी भरा जाता है। इसका अर्थ है सांसारिक सुखों का त्याग करके उसकी जगह पर आध्यात्मिक विचारों को अपनाना। इरुमुडिकेट्टु बनाया जाता है और यह श्रद्धालुओं के पास तब तक रहता है जब तक वे शबरिमला नहीं पहुंच जाते। इरुमुडिकेट्टु के बिना किसी भी श्रद्धालु को मंदिर तक जाने वाली 18 पवित्र सीढ़ियां चढ़ने की अनुमति नहीं होती है।
एरुमेलि पेट्टतुल्लल शबरिमला तीर्थयात्रा के प्रोटोकॉल में सबसे मुख्य अनुष्ठानों में से एक है। पारंपरिक रूप से, पेट्टतुल्लल धनु महीने [दिसंबर-जनवरी] के पहले दिन से शुरू होता है और उसी महीने के अंतिम दिन समाप्त हो जाता है। पेट्टतुल्लल एक ऐसा नृत्य है जिसमें नर्तक अपने पूरे शरीर पर चंदन और राख लगाते हैं, बन नींबू (गिरगिट्टी / पोटली) पेड़ के पत्ते पहनते हैं, सिर पर पत्तियों का मुकुट लगाते हैं, तीर पकड़ते हैं, और अपने कंधों पर एक छड़ी में सब्जियों की एक थैली लटकाते हैं। अम्बलप्पुष़ा समूह के नर्तक सन्निधानम में जाने से पहले वावर मस्जिद में जाते हैं। आलंगाड समूह अनुष्ठान के इस भाग में शामिल नहीं होते हैं। ऐसी मान्यता है कि जब नर्तक शबरिमला की ओर बढ़ते हैं तो वरार भी उनके साथ जाते हैं।
तिरुवाभरणम सोने से निर्मित पवित्र आभूषण है, जिससे भगवान अय्यप्पा की मूर्ति को सजाया जाता है। ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि इन्हें पन्तलम के राजा ने अपने ईश्वरीय पुत्र के सम्मान में बनवाया था। उन्हें मकरविलक्कु उत्सव की शाम को दीपाराधना [जलते दीए के साथ देवता की पूजा] से ठीक पहले मूर्ति पर रखा जाता है। उन्हें तीन पेटियों में भरकर मंदिर के गर्भगृह में लाया जाता है। मुख्य पेटी में भगवान के आभूषण रखे जाते हैं। मकरम महीने [जनवरी-फरवरी] के पांचवें दिन, कलभाभिषेकम (इसमें कलभम से देवता का अभिषेक किया जाता है जो चंदन के पेस्ट और अन्य सुगंधित पदार्थों का मिश्रण होता है) किया जाता है। दूसरी पेटी में सोने के घड़े होते हैं जिनपर कलभम रखा जाता है। तीसरी पेटी में मंदिर का पताका, तिडम्बु [सोने की एक पट्टी पर देवता की उभरी हुई प्रतिकृति, जिसे आम तौर पर एक हाथी के ऊपर रखा जाता है और गर्भगृह के चारों ओर घुमाने के लिए तैयार किया जाता है] और हाथी की सजावटी टोपी रखी जाती है। इन पेटियों को पन्तलम के राजा के महल के सुरक्षित कमरे में रखा जाता है। शाही आभूषणों को शबरिमला ले जाने से पहले तीर्थयात्री उन्हें देख सकते हैं।
यह श्रद्धालुओं की शोभायात्रा है जो मंदिर के अधिकारियों के साथ होता है जिसमें मकरविलक्कु त्योहार के दिन पवित्र आभूषणों को मंदिर तक ले जाया जाता है। इस शोभायात्रा की दूरी लगभग 83 किमी है, जो तीन दिनों में पूरी होती है। यह शोभायात्रा पन्तलम स्थित वलियकोयिक्कल मंदिर से शुरू होती है जिसमें धार्मिक उत्साह अपने चरम पर होता है। पेटियों को पालकी में ले जाया जाता है और राजपरिवार का एक प्रतिनिधि शोभायात्रा के साथ चलता है। पिछले 68 वर्षों से कुलत्तुंकल गंगाधरन पिल्लई स्वामी अपने सिर पर राजसी आभूषण रखते आए हैं। रास्ते में आने वले विभिन्न मंदिरों में इस शोभायात्रा का भव्य स्वागत किया जाता है। यह शोभायात्रा मकरविलक्कु उत्सव के समापन पर, कलभाभिषेकम होने और प्रसाद चढ़ाने के बाद वापस लौट आती है।
मकरविलक्कु के दिन, अर्थात मकरम महीने [जनवरी-फरवरी] के पहले दिन, भगवान अय्यप्पा की मूर्ति पर स्वर्ण आभूषण चढ़ाए जाते हैं। लेकिन त्रावणकोर (तिरुवितांकूर) के महाराजा चित्तिरा तिरुनाल बालरामवर्मा द्वारा वर्ष 1973 में उपहार में दी गई 420 सोवरीन वजन वाली तंका अंकी (एक गोल्डन परिधान) को मंडलपूजा के समय (मंदिर का मुख्य त्योहार, वृश्चिकम महीने [नवंबर-दिसंबर] के पहले दिन और धनु महीने [दिसंबर-जनवरी] के ग्यारहवें दिन के बीच 41 दिन के व्रत के अंत में) मूर्ति के ऊपर रखा जाता है। तंका अंकी को विशेष रूप से तैयार किए गए रथ में आरन्मुला के पार्थसारथी मंदिर से बहुत भक्तिमय उत्साह के साथ शबरिमला ले जाया जाता है। मंडलपूजा के बाद इसे वापस लाया जाता है और आरन्मुला मंदिर के सुरक्षित कमरे में रख दिया जाता है।